आपला 'देव' देवघरातच ठेवू नका. त्याला व्यवहारात आणा
'देव' न ठेवा देवघरी। तया आणा व्यवहारी।
हरि अंतरी-बाहेरी। भाव हवा।।१।।
भाव हवा मी श्रीराम। व्हावे आपण निष्काम।
नाम जपावे अविराम। हे भजन।।२।।
हे भजन गुण मिळवीन। मजला मीच सुधारीन।
आत्मरूप जग पाहीन। नामबळे।।३।।
नामबळे भय जाइ दुरी। नामबळे तम जाइ दुरी।
नाम बळे सुख व्यवहारी। परमार्थी।।४।।
परमार्थी 'मी' चा विसर। परमार्थी सम नारीनर।
भेद न उरतो रतीभर। स्वर्गच हा।।५।।
भगवंत अवतरला आहे, हे अखंड स्मरणात ठेवा
भगवंत आहे अवतरला। नामामध्ये तो भरला।
श्वासोच्छ्वासी जर धरला। सखाच तो।।१।।
सखाच तो माझा राम। स्वामी तो माझा राम।
स्मरण करवुनी घे राम। तो कर्ता।।२।।
'तो कर्ता' हे जाणवता। विरून जाती मग चिंता।
शांती सदनास येता। दिपवाळी।।३।।
दिपवाळी नामस्मरण। गुरुकृपेची ही खूण।
इथे तिथे तो समजून। वागावे।।४।।
वागावे जगतात असे। क्षणात दुःखी हासतसे।
आश्वासन स्पर्शात वसे। ही भक्ती।।५।।
भगवंताचे स्मरण करावे म्हणजे प्रपंच सोपा जातो
करावे रामाचे स्मरण। प्रपंच नाही मग कठीण।
संतबोध हा जाणून। जगायचे।।१।।
जगायचे रामासाठी। मरायचे रामासाठी।
होडी घ्या तरण्यासाठी। नामाची।।२।।
नामाची रुचि वाढावी। विषयाची रुचि सोडावी।
प्रपंचबेडी तोडावी। आत्मबले।।३।।
आत्मबले "तो मी" ज्ञान। सरला तुमचा अभिमान।
रात्रंदिन अनुसंधान। परमार्थ।।४।।
परमार्थाला लागावे। प्रपंचास राहू द्यावे।
कधी न कोठे गुंतावे। स्वराज्य हे।।५।।
संत व्हायचे म्हणजे सुखाने नेहमी हसायचे
उठता बसता नाम घ्यावे। मने विश्रांतीला जावे।
जो भेटे त्या प्रेम द्यावे। आनंदाने।।१।।
आनंदाने संभाषण। संभाषणे समाधान।
समाधाने सोsहं ज्ञान। भाविकाला।।२।।
भाविकाला सदा तोष। भक्तीचा हा परिपोष।
'मी रामाचा' आत घोष। मुखी हास्य।।३।।
मुखी हास्य ज्याच्या असे। संतपण तेथे असे।
रघुनाथ तेथ विलसे। नित्याचाच।।४।।
नित्याचा हा परिपाठ। मोद भरे काठोकाठ।
मोक्षलाभ हातोहात। भाग्यवंत।।५।।
भगवंताचा जन्म झाला की आनंदीआनंद भरून राहिला पाहिजे
जगायचे आनंदार्थ। दुःख करावे किमर्थ?
ओळखून दैत्य स्वार्थ। दक्ष राहा।।१।।
दक्ष राहा प्रपंचात। आसक्ती ही दुःख देत।
भक्त होत निरासक्त। नामघोषे।।२।।
नामघोषे राम जन्मे। नामघोषे कृष्ण जन्मे।
हा संतोष पूर्वपुण्ये। साध्य आहे।।३।।
साध्य आहे आत्मज्ञान। नामी पूर्ण समाधान।
नाम स्नान, नाम ध्यान। पर्वकाल।।४।।
पर्वकाल अंतरात। रामजन्म अंतरात।
ऐसी आनंदाची मात। रामराज्यी।।५।।
आकुंचित वृत्तीच्या माणसाला समाधान मिळणे शक्य नाही.
प्रभूने हे विश्व दिले। पाहिजे हे ध्यानी आले।
"मी, माझे" जर मावळले। समाधान।।१।।
समाधान नसे वित्ती। समाधान असे चित्ती।
विलसे ते मुद्रेवरती। भाविकाच्या।।२।।
भाविकाची कशी भाषा। राम एक त्याची आशा।
दुःख गुंडाळते गाशा। जाई दूर।।३।।
जाई दूर सुखस्वार्थ। प्रवेशतो परमार्थ।
मीच कृष्ण, मीच पार्थ। आत्मानंदी।।४।।
आत्मानंदी जे जे मिळे। अज्ञान्याला कोठे कळे।
देहबुद्धी त्याला छळे। राक्षसी ती।।५।।
गीता ही सर्व ग्रंथांची आई आहे
गीता आहे ग्रंथमाता। साऱ्या विश्वी तिज मान्यता
गीता कळे गाता गाता। साधकाला।।१।।
साधकाला गुरु कृष्ण। कडेवर घे उचलून
आत्मस्वरूप दाखवून। करी शांत।।२।।
करी शांत योगेश्वर। करी ज्ञानी योगेश्वर
करी भक्त योगेश्वर। सश्रद्धाला।।३।।
सश्रद्धाला होते ज्ञान। कर्तव्याचे पूर्ण भान
स्वानंदाचे मधुर गान। गीता गाई।।४।।
गीता गाई वेदसार। गीता नेई भवपार
गीता घाली कंठी हार मौक्तिकांचा।।५।।
मारुती गावात नसेल तर घरी तरी ठेवावा.
मारुतीची उपासना। मनोभावे करताना।
निर्भय वाटे मना। भेटे राम।।१।।
भेटे राम ध्यानी मनी। रंगे भक्त नामगानी
एकवचनी, एकपत्नी। कृपा करी।।२।।
कृपा करी रघुनाथ। पूर्ण करी मनोरथ।
राम येथ, राम तेथ। ऐसे वाटे।।३।।
ऐसे वाटे घडो सेवा। आवडो ती रामदेवा।
आत्म्याला हा गोड मेवा। देई मोद।।४।।
देई मोद रामदूत। धन्य अंजनीचा सुत।
व्रते तीव्र सौम्य होत। प्रसादाने।।५।।
मला मनुष्य वाईट असा दिसतच नाही नाहीतर तो मनुष्य होऊन जन्माला आलाच नसता.
कोणी दिसो नारी-नर। त्या त्या रूपे रघुवीर
पाहता ये नयनी नीर। आनंदाचे।।१।।
आनंदाचे जे ठिकाण। तेथे कोण थोर सान।
अवघी भूते मला समान। वंदनीय।।२।।
वंदनीय सारे जन। दिसे उध्दाराची खूण।
नामी टाकावे दंग करून। हाचि ध्यास।।३।।
हाचि ध्यास माझ्या मना। पोटी दाटे अपार करुणा
शब्दही मग बोलवेना। भाग्य माझे।।४।।
भाग्य माझे ऐसी दृष्टी। टाकाऊ ना कुणी व्यक्ती
देउळे ही सारी हलती। राघवाची।।५।।
घरामध्ये सर्वांनी कसे हसून-खेळून मजेत असावे.
घरी असावी प्रसन्नता। स्वच्छता, नीतिमत्ता
रमा रमे येथ येता। ते सदन।।१।।
ते सदन जेथे प्रेम। सायंप्रार्थना हा नेम।
सकलांचा योगक्षेम। योग्य चाले।।२।।
योग्य चाले कारभार। जो तो आहे खबरदार
कुणी न करी शब्दप्रहार। कोणावरी।।३।।
कोणावरी न कार्यभार। सर्व लोक भागीदार।
आल्या अतिथ्या मुक्तद्वार। गोकुळ हे।।४।।
गोकुळ हे आहे घर। कुणी न करी किरकिर
शांति नाचे धरून फेर। मंदिर ते।।५।।
आपण आपले मागले घडलेले सर्व भगवंताला अर्पण करावे; मग पुढची जबाबदारी त्याच्यावर पडते.
जे झाले ते रामार्पण। करू नये चिंता आपण।
सर्व त्यावर सोपवून। स्वस्थ व्हावे।।१।।
स्वस्थ व्हावे नाम घ्यावे। मी तुझा हे बाणवावे।
सर्वाभूती तो जाणावे। उपासना।।२।।
उपासना ज्ञानयुक्त। उपासना करी मुक्त।
आनंद हा अंतर्गत। ज्याचा त्याला।।३।।
ज्याचा त्याला लाभ होई। समाधान आत येई।
शांती तनी मनी येई। सुख सर्वां।।४।।
सुख सर्वां रामराज्य। वासनेचे सरे राज्य।
आनंदाचे हे साम्राज्य। रामकृपा।।५।।
अपेक्षा न करणे हे परमार्थाचे बीज आहे.
नको धन, नको मान। काही न इच्छावे आपण।
फलाशा सर्व सोडून। वागायाचे।।१।।
वागायाचे असे काही। सर्वां हवा हवा होई।
चित्त राही रामापायी। ऐसा भक्त।।२।।
ऐसा भक्त प्रपंचात। कमलपत्र उदकात।
अलिप्त तो पूर्ण शांत। आत्मतृप्त।।३।।
आत्मतृप्त रमे नामी। कधीही न म्हणे मी, मी।
जग वाखाणे नेहमी। रामदासा।।४।।
रामदासा नसे आशा। भक्तिपूर्ण अशी भाषा।
नाही क्षुधा, नाही तृषा। अंशमात्र।।५।।
आपण आपल्या आईशी बोलतो तसेच देवाशी बोलावे. देवाला आपले दुःख सांगत जावे.
बोलावे नित्य देवाशी। जसे बोलतो आईशी।
तो सांभाळे भाविकासी। हा भावार्थ।।१।।
हा भावार्थ धरा ध्यानी। मागे पडतो अभिमानी।
नम्र तो जाय तरुनी। नाम घेता।।२।।
नाम घेता राम येतो। तोच दुःख ऐकून घेतो।
पाठी प्रेमळ हात फिरतो। बरे वाटे।।३।।
बरे वाटे नामस्मरणे। पुरते होई जेथ उणे।
दीनदास ऐसे म्हणे। तारी भाव।।४।।
तारी भाव आहे राम। नाम जपा अविराम।
अंतःकरण शांतिधाम। साधनेने।।५।।
उपासनेचे खरे स्वरूप म्हणजे आपले दोष आपल्याला दिसणे होय.
नाम घ्यावे नम्र व्हावे। उपासना करीत जावे।
अवगुणा ध्यानी घ्यावे आपल्याच।।१।।
आपल्याच मनी क्रोध। क्रोधमूळ आहे काम।
कामशत्रू रामनाम। दिव्यौषधी।।२।।
दिव्यौषधी घेत जाता। तना मना निरोगता।
एक एक गुण जोडता। पाउल पुढे।।३।।
पाउल पुढे असे राहो। आत्माराम भेटत राहो।
सत्संगाचा घडे लाहो। उपासका।।४।।
उपासका काय कमी? सुधारण्याची तया हमी।
आतला आदेश नेहमी। पाळायाचा।।५।।
जगात जे आहे ते सर्व चांगलेच आहे; आपणच बरे नाही.
जगामध्ये सारे चांगले। पाहिजे ते ध्यानी आले
मन हवे विशाल अपुले। गुणग्रहणा।।१।।
गुणग्रहणा त्वरे लागा। भावपूर्ण बोला, वागा।
राम आत नित्य जागा। भेटा त्याला।।२।।
भेटा त्याला वारंवार। तोच एक दाता शूर।
वाहवील प्रेमपूर। आचारात।।३।।
आचारात हवी आस्था। रामापायी असो माथा।
चढे वैभव बघता बघता। श्रद्धेचे त्या।।४।।
श्रद्धेचे त्या एक आहे। काही पालट त्वरे आहे।
बरे आहे, भले आहे। म्हणू ऐसे।।५।।
मनाने संत बनायला पाहिजे; नुसते बाहेरून संत बनणे पाप आहे.
मने व्हावे रामदास। भजन करा सावकाश।
एक एक गळे पाश। अज्ञानाचा।।१।।
अज्ञानाचा करा त्याग। ज्ञाने साधा कार्यभाग।
जीवन आहे थोर याग। ध्यानी घ्यावे।।२।।
ध्यानी घ्यावा मनोधर्म। सुधारणेचे हेच मर्म।
मना उलटता ते नाम। आपोआप।।३।।
आपोआप स्फुरो नाम। एक एक श्वास दाम।
श्वासमोले घ्यावा राम। संत व्हावे।।४।।
संत व्हावे विवेकाने। विवेकाने, अभ्यासाने।
अभ्यासाने नारायणे। केला यज्ञ।।५।।
समाधान आणि आनंद ही खरी लक्ष्मी होय.
खरी लक्ष्मी समाधान। आनंद तो अन्नदान।
सदाचार हे वरदान। भगवंताचे।।१।।
भगवंताचे नाव घ्यावे। कार्यकर्म करीत जावे
आळसाला न ठेवावे। थोडे स्थान।।२।।
थोडे स्थान विवेकाला। विवेकाला संयमाला।
संयमाला, विरक्तीला। देता शांती।।३।।
देता शांती, घेता प्रीती। कृतज्ञता ही श्रीमंती।
सदाचार हीच नीती। संतबोध।।४।।
संतबोध समाधान। संतबोध आत्मज्ञान।
संतबोध निर्मूलन। अज्ञानाचे।।५।।
उद्योगामध्ये राहाणे हीच खरी भगवत्सेवा होय.
निजकर्तव्या करीत जावे।नामानंदा सेवीत जावे।
रघुनाथाने अंतरि यावे। कृपा हीच।।१।।
कृपा हीच घडे उद्योग। नित्य रामाशी घडे योग।
क्षणभरही ना वियोग। भगवत्सेवा।।२।।
भगवत्सेवा कर्मपूजा। नामस्मरण भावपूजा।
सोsहं ध्यान ज्ञानपूजा। भगवंताची।।३।।
भगवंताची मूर्ती संत। परमार्थाची शिकवण देत।
भक्तिमार्गी पुढती नेत। हळूहळू।।४।।
हळूहळू सुधारावे। निंद्य त्याज्य ते टाकावे।
वंद्य ते ते भावे करावे। उद्योग हा।।५।।
संत हे गेल्यानंतर सुद्धा हवेसे वाटतात.
संत जरी देहे गेले। बोधरूपे मागे उरले
हवेहवेसे सर्वां झाले। आत्मतृप्त।।१।।
आत्मतृप्त सदा संत। विषयी ना जरा गुंतत।
अनुसंधानी नित्य रत। रघुनाथाच्या।।२।।
रघुनाथाच्या नामस्मरणे। अवघे जीवन त्यांचे सोने।
मार्गी त्यांच्या नेटे जाणे। श्रद्धा हीच।।३।।
श्रद्धायुक्त कृती श्राद्ध। श्रद्धा नाही ते थोतांड।
नामधार धरा अखंड। शिवावरी।।४।।
शिवावरी निष्ठा असो। संतप्रेम चित्ती असो
उपासना खंडित नसो। पुण्यतिथी ही।।५।।
तू जे देशील ते मला आवडेल असे आपण भगवंताला सांगावे.
"राघवा, जे देशी मला। ते ते आवडेल मला"।
ऐसे बोला राघवाला। सर्वकाळी।।१।।
सर्वकाळी 'राम माझा'। ऐसे बोलो सदा वाचा।
राम माझा, मी रामाचा। राहो भाव।।२।।
राहो भाव, रामापायी। त्याची इच्छा प्रमाण राही।
"मी, माझेपण' जधी जाई। देव भेटे।।३।।
देव भेटे श्रद्धावंता। श्रद्धावंता ज्ञानवंता।
ज्ञानवंता, भक्तिवंता। साक्षात्कार।।४।।
साक्षात्कार ज्ञानेश्वरा। नामदेवा, तुकारामा
एकनाथा, रामदासा। आत्मशोधे।।५।।
माझ्या माणसाने माझे घेतले असे मला कधीच वाटले नाही.
जे दिले ते परत मिळावे। ऐसे न मना वाटावे
वृथा कशाला गुंतावे। आशापाशी।।१।।
आशापाशी तीव्र यातना। खंड पडे अनुसंधाना
विकल्प उठती मनी नाना। आशा सोडा।।२।।
आशा सोडा राम जोडा। सहज ओढा प्रपंच गाडा
सारथी करा वीर गाढा। मेघश्याम।।३।।
मेघश्याम लावण्यरूपी। राजाराम परमप्रतापी।
रामांकित तो महाकपी। हनुमान।।४।।
हनुमान राम सर्वस्व। त्यांचे माना वर्चस्व
विसरायाचे आता स्व। मी साऱ्यांचा।।५।।
एका भगवंताचे प्रेम लागले की भाषेमध्ये सर्व चांगले गुण येतात.
प्रेम लागावे श्रीरामाचे। इथे तिथे दर्शन त्याचे।
वाढे माधुर्य वाचेचे। भगवत्प्रेमे।।१।।
भगवत्प्रेमे जीव नटला। देहस्वार्था पुरता विटला
दुजाभाव पूर्ण आटला। भक्ती करता।।२।।
भक्ती करता मनःशांती। मनःशांती ही विश्रांती
तुळशीची ही रोपे डुलती। वृंदावनी।।३।।
वृंदावनी तुळस डुलो। भक्तीचे जळ तिला मिळो
पुन्हा न मानस कधी मळो। शुद्ध व्हावे।।४।।
शुद्ध व्हावे देहे आधी। नाम घ्यावे ही समाधी।
विरती आपोआप उपाधी। नित्यपाठे।।५।।
मरणाच्या मागे स्मरणाचा ससेमिरा लावावा
मरणाचे जरी वाटे भय। वृत्ती करता राममय।
साधक बनतो निर्भय। नामस्मरणे।।१।।
नामस्मरणे भेटे समर्थ। मरणा भ्यावे किमर्थ
जन्ममरण पाउले टाकत। चालायाचे।।२।।
चालायाचे घेता नाम। संगे सहज येत राम
तोच तोच रे आत्माराम। माझ्या मना।।३।।
माझ्या मना नित्य स्मर। अनित्याचा पडे विसर
रघुनाथ घाली पाखर। भक्तावरी।।४।।
भक्तावरी प्रेम करी। मरणभय जाई दुरी
ऐसा कनवाळू श्रीहरी। मागेपुढे।।५।।
ज्याच्या मागे उपासनेचा जोर आहे, तोच जगात खरे काम करतो.
उपासनेला चालवावे। मना समर्थ बनवावे
तनी, मनी तत्त्व मुरावे। साधनेने।।१।।
साधनेने साध्य सर्व। घालवावा दुष्ट गर्व।
तेणे सुरू पुण्यपर्व। जीवनात।।२।।
जीवनात राम आहे। उपासना राम आहे।
ज्याचे धैर्य ठाम आहे। रामदास।।३।।
रामदासामुखी हास्य। करी भगवंताचे दास्य
कार्य वाटे उमालास्य। शिव तोषे।।४।।
शिव तोषे भक्तिभावे। जीव शिवच स्वभावे
आपण अपणा ओळखावे। शिवरात्री।।५।।
परमार्थ हा वृत्ती सुधारण्याचा मार्ग आहे.
चंचल मना आवरावे। मना नामी रमवावे।
तया माघारी वळवावे। अंतरात।।१।।
अंतरात जाता येते। मने मना शिकता येते।
वृत्ती सुधारता येते। अभ्यासाने।।२।।
अभ्यासाने वैराग्याने। आत्मारामाला पाहणे।
निजात्मसत्ता आठवणे। परमार्थ।।३।।
परमार्थ हा समजुतीचा।समजुतीचा शांतपणाचा।
लीनतेचा, सदयतेचा। शिकवी पाठ।।४।।
शिकवी पाठ सच्छिष्याला। सद्गुरू सुकृते लाभलेला
प्रेमसूत्रे बांधलेला। भविकाने।।५।।
पैसा गेला म्हणून काही अब्रू जात नांही. आपली अब्रू आपल्या आचरणावर अवलंबून असते.
धन गेले सुखे जावो। शीलधन दृढ राहो।
आत्मारामा सदा पाहो। भक्तराज।।१।।
भक्तराज रंगे नामी। न गुंतला कामक्रोधी।
अनुसंधाना सदा साधी। साक्षेपी तो।।२।।
साक्षेपी तो सावधान। मी रामाचा तया भान
नसे लेश अभिमान। दीनदासा।।३।।
दीनदासाची श्रीमंती। श्रीमंती ती सद्भावाची
कारुण्याची कर्तव्याची। ध्यानी घ्यावे।।४।।
ध्यानी घ्यावे धन गौण। गौण लौकिक सन्मान।
सन्मान तो वमनासम। निरिच्छाला।।५।।
ज्याचा आनंद टिकेल त्याला नित्य दिवाळी आहे.
आनंद हा स्वरूपाचा। ज्याचा त्याला लाभायाचा
पथ अनंत रामाचा। चालू लागा।।१।।
चालू लागा भक्तिमार्गे। राम पुढे राम मागे।
मन रामाज्ञेत वागे। भाविकाचे।।२।।
भाविकाचे भाग्य हेच। द्वंद्व कदा बाधेनाच।
सोsहं घोष घुमतोच। अतरंगी।।३।।
अतरंगी राम आहे। आनंदाचा कंद आहे।
नाम घेणे छंद आहे। दिवाळी ही।।४।।
दिवाळी ही नित्याचीच। शांतितृप्ती सदाचीच।
बोधवाणी संतांचीच। तारीतसे।।५।।
बापाचा पैसा हा मुलाने अनीतीने वागण्यासाठी नाही. जो मुलगा अनीतीने वागतो त्याला बापाने पैसा देऊ नये.
जे जे वडिली मेळविले। हवे आपण वाढविले।
तरीच काही सार्थक झाले। पुत्रपणाचे।।१।।
पुत्रपणाचे हे लक्षण। पित्याविषयी पुत्र कृतज्ञ।
पितृगुणाचे सदा स्मरण। पाउल पुढे।।२।।
पाउल पुढे टाकायाचे। संस्कारांना स्मरायाचे
मायपितरां वंदायाचे। भावपूजा।।३।।
भावपूजा देवा रुचते। नवीन काही आतुन सुचते
दिवसेंदिवस भाग्य उजळते। उद्योगाने।।४।।
उद्योगाने साक्षात्कार। पथ पुढचा उलगडणार
ध्येयमंदिर नाही दूर। यात्रिकाला।।५।।
मनाची विश्रांती म्हणजे खरी विश्रांती होय.
श्रीराम मना विश्राम। विश्रामाचा अर्थ नाम।
मना जोडून देता नाम। खेळीमेळी।।१।।
खेळीमेळी प्रसन्नता। प्रसन्नता विश्वबंधुता।
मी न काही देहापुरता। सर्वांसाठी।।२।।
सर्वांसाठी माझी काया। सर्वांसाठी दौलत माया।
ना तरी सारा जन्म वाया। गेला गेला।।३।।
गेला गेला ऐसे न व्हावे। परोपकारी तन झिजवावे
मने विश्रामसुख घ्यावे। रामरंगी।।४।।
रामरंगी रंगून जाता। चंदनापरी झिजता झिजता।
आत्मसौख्य लुटता लुटता। सार्थकता।।५।।
तपश्चर्या म्हणजे चिकाटी होय.
तपश्चर्या देहविस्मरण। तपश्चर्या दिव्य स्फुरण
तपश्चर्या सुंदर साधन। परमार्थाचे।।१।।
परमार्थाचे राज्य ऐसे। येथे काम चिकाटीचे।
अभ्यास नाम सातत्याचे। बिंबे आत।।२।।
बिंबे आत मी रामाचा। क्षणहि न विसर रामाचा।
आक्रमीन पथ राघवाचा। ध्यास हाच।।३।।
ध्यास हाच तप करीन। मोही न कसल्या गुंतेन
वाटचाल मी करीन। चिकाटीने।।४।।
चिकाटीने करता यत्न। मानव ठरे अमोल रत्न।
नर होई नारायण। अभ्यासाने।।५।।
परमार्थाला अगदी स्वतःपासून सुरुवात करायची असते.
परमार्थ आहे सदाचार। कल्याणाचा सुविचार।
मनावरचा संस्कार। सुमंगल।।१।।
सुमंगल आहे नाम। नाम हेच रामधाम।
भक्ता करीत निष्काम। निश्चयाने।।२।।
निश्चयाने कार्य होई। राघवाशी भेट होई।
समाधान होत राही। मानसाचे।।३।।
मानसाचे शुद्ध प्रेम। करवील नित्यनेम।
तेणे होई पूर्ण क्षेम। आपलेच।।४।।
आपलेच हितासाठी। बनायाचे परमार्थी।
वागण्यात हवी नीती। सौख्यदायी।।५।।
ज्ञान हे परीक्षेकरिता नसावे; ज्ञानासाठी ज्ञान मिळवावे, त्यातच खरा आनंद आहे.
नसावे ज्ञान परीक्षेसाठी। ज्ञान हवे ज्ञानासाठी।
तेणेच लाभे विश्रांती। साधकाला।।१।।
साधकाला लागो ध्यास। तरीच होईल अभ्यास।
देही होता तो उदास। होई भला।।२।।
होई भला जिज्ञासेने। बैसे ध्याना निश्चयाने।
त्याच्या भाग्या काय उणे? तोचि ज्ञानी।।३।।
ज्ञानी नाही शब्दज्ञानी। आहे पूर्ण आत्मज्ञानी।
आत्मतृप्त निरभिमानी। ऐसा भक्त।।४।।
ऐसा भक्त होता यावे। उपासना करीत जावे।
फलाशेत ना गुंतावे। कदा कोणी।।५।।
भगवंताच्या स्मरणामध्ये देहबुद्धीचे विस्मरण आहे.
नाम घ्यावे येता जाता। नरजन्माची सार्थकता।
देही विदेही येते होता। सोsहंभावे।।१।।
सोsहंभावे समाधान। ज्ञानामध्ये आत्मज्ञान
देहबुद्धि हे अज्ञान। घालवावे।।२।।
घालवावे देहभान। तनू पूर्ण झिजवून।
तरी न्यून होई पूर्ण। संतकृपा।।३।।
संतकृपा तेव्हा झाली। देहबुद्धी गेली गेली।
आत्मबुद्धि झाली झाली। विवेकाने।।४।।
विवेकाने, वैराग्याने। आचरावे साधकाने।
धान्य व्हावे नामस्मरणे। तत्त्वसार।।५।।
भगवंताला दृष्टीआड न होऊ देणे याचे नाव अनुसंधान होय.
अनुसंधान त्याचे स्मरण। अनुसंधान त्याचे चिंतन।
अनुसंधान त्याचे दर्शन। येथे तेथे।।१।।
येथे तेथे असे राम। अंतरात आत्माराम
करिता काम घेता नाम। परमानंद।।२।।
परमानंद अनुभवणे। 'मी-माझेपण' पूर्ण जाणे।
ऐसे त्याशी समरसणे। शिव-शक्ती।।३।।
शिवशक्तीचा चाले खेळ। परमार्थाचा सुंदर मेळ।
गंध चंदनी पसरेल। मलयानिले।।४।।
मलयानिले शीतलता। अंग अंग परिमळता।
आनंद ये का तो मोजता। पामराला।।५।।
सद्गुरु म्हणजे मूर्तिमंत नाम होय.
मूर्तिमंत नाम जेथे। सद्गुरुंचा वास तेथे।
स्वार्थहीन चित्त होते। नाम घेता।।१।।
नाम घेता क्षणोक्षणी। राम होय स्वये ऋणी।
नामे वश होय वाणी। गुरुकृपा।।२।।
गुरुकृपा लाभ थोर। आनंदाला नाही पार।
दुःख थोडे सुख फार। रामानंदी।।३।।
रामानंदी रंगे मन। तरी मनाचे अमन।
साधकाचे पूर्वपुण्य। नरजन्म।।४।।
नरजन्म महत्त्वाचा। बोध साऱ्या सज्जनांचा
नारायण बनण्याचा। लागो ध्यास।।५।।
ज्याने मला पाठविले तो बोलाविल तेव्हा परत जायचे.
ज्याने मला पाठविले। त्याचे स्मरण हवे केले
नामरूपे त्या साठविले। अतरंगी।।१।।
अतरंगी तो भरलेला। अवती भवती तो जाणवला
म्हणून जीव जडला। त्याचे चरणी।।२।।
त्याचे चरणी वृत्ती लीन। ऐसा गा मी पराधीन
साद त्याची मी ऐकेन। हवे जाया।।३।।
हवे जाया तातडीने। ऐहिकात ना गुंतणे
आनंदे प्रस्थान ठेवणे। त्याची इच्छा।।४।।
त्याची इच्छा आलो येथे। त्याची इच्छा निघालो तेथे
यात काय माझे जाते? मी रामाचा।।५।।
आपल्याला जे कळले ते आपल्या आचरणात आणणे हे खरे ऐकणे होय.
सावधान श्रवण करून। तत्त्वसार मनि ठसवून
जर केले आचरण। ते श्रवण।।१।।
ते श्रवण खरे श्रवण। भक्तिपूर्ण अंतःकरण।
भरून वाहताती नयन। आसवांनी।।२।।
आसवांनी स्नान घाला। अंतरातल्या रामाला
नामस्मरणे तो तोषला। सर्व काळ।।३।।
सर्व काळ जी जिज्ञासा। तीच शारदीय भाषा।
तोडतसे मायापाशा। साधुबोधे।।४।।
साधुबोधे होते ज्ञान। हारपते देहभान।
जमू लागे सोsहं ध्यान। नित्यश्रवणे।।५।।
परमार्थ आपल्याशीच करायचा खेळ आहे. तो आपल्याशीच करायचा अभ्यास आहे.
परमार्थी हवे सावधपण। पाहावे आपणा आपण।
कळो येती निज अवगुण। भिऊ नये।।१।।
भिऊ नये करावा नेम। रघुनाथ करील क्षेम।
मग अभ्यासी निपजे प्रेम। आपोआप।।२।।
आपोआप स्फुरे नाम। तेही ऐकवता राम।
आता निष्प्रभ क्रोध-काम। प्रगती ही।।३।।
प्रगती ही वागण्यात। समाधान वाटे आत।
मन होय शांत शांत। भक्तियोग।।४।।
भक्तियोग कळे वळे। गंध घरी दरवळे।
आत आत मनहि वळे। अभ्यासाने।।५।।
आपण स्वतःच्या मुलाला जसे प्रेमाने घेतो तसा परमार्थ करावा आणि आपण दुसऱ्याच्या मुलाला जसे घेतो तसा प्रपंच करावा.
कर्तव्यपालन प्रपंचात। मन रंगावे परमार्थात।
उठता बसता नाम घेत। वेळ जावा।।१।।
वेळ जावा नामस्मरणी। एक एक श्वास मणी।
तरीच लागे जन्म कारणी। भाविकाचा।।२।।
भाविकाचा पाठिराखा। रघुनाथ एक सखा।
ये विषयी न जरा शंका। राहो द्यावी।।३।।
राहो द्यावी चिर जागृती। कोण मी? याची स्मृती।
राम देई संतत स्फूर्ती। दाता थोर।।४।।
दाता थोर दुसरा नाही। अंतर्बाह्य तोच राही।
चित्त ठेवुनि त्याचे पायी। धन्य व्हावे।।५।।
देहाच्या भोगांना मी कधी कंटाळलो नाही.
संतबोध 'मी न देह'। देह आहे रामगेह।
राम मी जर निःसंदेह। का कष्टावे?।।१।।
का कष्टावे? येता रोग। सारावा तो भोगून भोग।
रघुनाथाचा साधे योग। नाम घेता।।२।।
नाम घेता बरे वाटे। चित्त शांत शांत होते।
चंदनाचे शैत्य येते। कृपा हीच।।३।।
कृपा हीच धैर्य राहे। मागे-पुढे राम आहे।
धीर तोच पुरवताहे। क्षणोक्षणी।।४।।
क्षणोक्षणी अभ्यासाने। अभ्यासाने विवेकाने।
भोग भोगणे अलिप्तपणे। जमू लागे।।५।।
समाधान ही सुधारणेची खूण आहे.
रामनाम ज्याचे मुखी। तोच एक खरा सुखी।
मिळो रोटी ओली सुकी। घेई नाम।।१।।
घेई नाम आवडीने। त्याच्या भाग्या काय उणे?
नसो काही सोने नाणे। समाधान।।२।।
समाधान सुधारणा। सुख मना, सुख जना।
भक्त नाही दीननवाणा। राघवाचा।।३।।
राघवाची कृपा हीच। जळे आशा अंतरीच।
एक भाषा प्रेमाचीच। हास्य गाली।।४।।
हास्य गाली ही दिवाळी। ज्योत नेत्री तेजाळली।
गेली वासना हो गेली। संतसंगे।।५।।
माझ्या देवाला हे आवडेल का? अशा भावनेने जगात वागणे हाच सगुणोपासनेचा हेतू आहे.
जे जे देवा आवडावे। ते ते आपण करावे।
एवढेच सांभाळावे। येथे पथ्य।।१।।
येथे पथ्य रामी भाव। नित्य पाही राम राव।
मार्गदीप भक्तिभाव। वागण्याला।।२।।
वागण्याला ऐसे लागू। प्रेम रामापाशी मागू।
सुखदुःख त्याला सांगू। मुक्त मने।।३।।
मुक्त मने नाम घेता। चिंताभार त्याचे माथा।
अहंभाव दूर जाता। उपासना।।४।।
उपासना चालवतो। संकटात साह्य देतो।
भक्त कौतुक करतो। रघुनाथ।।५।।
प्रत्येकाला त्याची गरज भागेल येवढे भगवंत देतच असतो, म्हणून जे आहे त्यात समाधान मानावे.
आहे ते ते त्याने दिले। काय हवे हे जाणले।
प्रमाणही ठरविले। देणाऱ्याने।।१।।
देणाऱ्याने भक्ति द्यावी। रामपदी निष्ठा द्यावी।
चूक आपली कळावी। दिले नाम।।२।।
दिले नाम घ्यावे तेच। भूक त्याने भागतेच।
बाळसेही धरतेच। भक्तबाळ।।३।।
भक्तबाळ राम आई। आई बाळापाठी राही।
उचलुन कडे घेई। कौतुकाने।।४।।
कौतुकाने रामे घ्यावे। समाधान मना द्यावे।
काय लागते मागावे। दयाघना?।।५।।
भगवंत असण्याची जी स्थिती तिचे नाव भक्ती होय.
'राम आहे' ऐसा भाव। मुखी राघवाचे नाव।
दुःखविमोचना धाव। तीच भक्ती।।१।।
तीच भक्ती रामी प्रीती। सदाचार हीच नीती।
संयमाची सारी कृती। प्रसन्नता।।२।।
प्रसन्नता सदा मुखी। ऐसा रामदास सुखी।
देह राघवा पालखी। वाटलेला।।३।।
वाटलेला हा आधार। हेहि रामाचे आभार।
भक्तिभावे नमस्कार। भावपूजा।।४।।
भावपूजा साधीसुधी। व्यवहारी शुद्ध बुद्धी।
होत दासी ऋद्धि सिद्धी। रामराज्यी।।५।।
धर्म म्हणजे व्यवस्थितपणा होय. धर्म वस्तुजातास नीट धरून ठेवतो.
धर्म धरून ठेवणे। धर्म व्यवस्था लावणे।
धर्म भगवंत होणे। साधनेने।।१।।
साधनेने ये वैराग्य। साधकाचे उजळे भाग्य।
शांतिसुखाचे साम्राज्य। समाजात।।२।।
समाजात संघटना। कार्यक्रमात योजना।
साधणे अनुसंधाना। धर्मखूण।।३।।
धर्मखूण आहे प्रेम। निश्चयाने नित्यनेम।
घरीदारी समाधान। सर्वकाळ।।४।।
सर्वकाळ नाम घेणे। तने मने त्याचे होणे।
कर्म यज्ञरूप होणे। धर्ममर्म।।५।।
जेथे आपणच दिवस गोड करून घ्यायचा आहे तेथे रोजच दसरा का न करावा?
दुःख नाव अज्ञानाचे। आनंद रूप ज्ञानाचे।
संतबोल समजुतीचे। आचरावे।।१।।
आचरावे आत्मज्ञान। भगवंताचे आत स्थान।
साधनेने समाधान। लाभताहे।।२।।
लाभताहे जर सुख। थोडे व्हावे अंतर्मुख।
रामनामी पूर्ण सुख। विश्वासावे।।३।।
विश्वासावे रामावर। मने मना घाला आवर।
नाम जपा श्वासावर। हा दसरा।।४।।
हा दसरा विजयाचा। विसर पूर्ण विषयाचा।
दिवस गोड करायाचा। नित्यच सण।।५।।
खरा पश्चाताप हा भयंकर दाहक आहे. तो मागचे सगळे जाळून टाकतो.
'त्याला' विसरलो चूक झाली। मना चुटपुट लागलेली।
अश्रू ओघळले मग गाली। गंगास्नान।।१।।
गंगास्नान शुद्ध करते। तनामना स्वच्छ करते।
मागचे न काही उरते। पुनर्जन्म।।२।।
पुनर्जन्म प्रत्येक दिवशी। अंतःकरण आहे काशी।
अभाग्या का न ध्यानी घेशी। सावधान।।३।।
सावधान जो सगळ्याआधी। त्याला न छळे उपाधी।
कैची आधी-कैची व्याधी। रामदासा।।४।।
रामदासाचा अनुताप। नुरू देई मनस्ताप।
नावालाही नुरे पाप। नाम घेता।।५।।
आपण साखर खाल्ली तर आपल्याला गोड लागते, त्याचप्रमाणे आपण गोड शब्द बोललो की आपल्याला गोड शब्द ऐकू येतात.
नित्य गोड बोलत जावे। प्रेमे सकलां सौख्य द्यावे।
सौम्य, शांत आपण व्हावे। विवेकाने।।१।।
विवेकाने नामस्मरणे। अद्वयानुभवा घेणे।
'माझे मीपण' पूर्ण जाणे। असो लक्ष।।२।।
असो लक्ष 'रामा'वरी। अंतर्बाह्य वास करी।
स्वये सुखी सुखी करी। सगळ्यांना।।३।।
सगळ्यांना जो आवडतो। रघुनाथा ही हवा होतो।
देव भक्ता मस्तकी धरतो। कौतुकाने।।४।।
कौतुकाने घास घाला। कौतुकाने प्रेमे बोला।
परानंदी मोदे डोला। आशीर्वाद।।५।।
आपले कर्तव्य शेवटपर्यंत करणे हा परमार्थ होय.
कर्तव्यपालन करावे। मोही न कसल्या गुंतावे।
नामस्मरणी रत व्हावे। पुन्हा पुन्हा।।१।।
पुन्हा पुन्हा करता करता। गोडी लागते तत्त्वतः।
यश लाभे अभ्यास घडता। हाचि नेम।।२।।
हाचि नेम निसर्गाचा। जाणून सदा पाळायाचा।
नामे होय शुद्ध वाचा। कर्मे काया।।३।।
कर्मे काया होय निरोगी। ध्याने होई मानव योगी।
विषयत्यागे पूर्ण विरागी। होई नर।।४।।
होई नर नारायण। हरिभक्ति परायण।
करी कर्तव्यपालन। परमार्थ हा।।५।।
जसे आपले आपलेपण आपल्या नावात आहे तसे देवाचे देवपण त्याच्या नामात आहे.
नाम घ्यावे आवडते। त्यात देवत्व राहते।
नाम औषध तारते। आजाऱ्याला।।१।।
आजाऱ्याला दुःख होते। देहबुद्धी त्रास देते।
रामाहून दूर नेते। रडू येते।।२।।
रडू येते वियोगाने। हासू येते संयोगाने।
रामयोग हो नामाने। लीला त्याची।।३।।
लीला त्याची नाम देतो। नाम घेता धीर देतो।
भक्तालागी सांभाळितो। रघुनाथ।।४।।
रघुनाथ आहे नामी। देह गुंतो कार्यकर्मी।
नाम घालवी 'माझे, मी'। करी राम।।५।।
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले