सायंकाळी स्वरूप स्मरता
भिरभिरते मन विसावते।
आनंदाचा उगम अंतरी
गुरुकृपेने त्या कळते।।१।।
नित्यपाठ तो नित्य वाचता
ओवी ओवी मनि मुरते।
सामूहिक या अभ्यासाने
माझी काया मोहरते।।२।।
मन पवनाला जोडुन देता
मस्तक थोडे जड होते।
कृपाहस्त मस्तकी गुरूंचा
ऐहिकास मन विस्मरते।।३।।
घर हो पावस घर आळंदी
समाधिमंदिर घर बनले
आता मैत्री चराचराशी
पालटले मन पालटले।।४।।
नित्यच मजला गुरुपौर्णिमा
प्रासादिकता ये वचनी।
भजनकेंद्र चालवा निरंतर
श्रीरामा ठेवाच ऋणी।।५।।
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले
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